Wednesday, February 10, 2010

एक गज़ल



राहें हज़ार हैं यहां, पर मंज़िलें कहां?
तुमसे मिलाये जो हमें, वो रहगुज़र कहां?

मौसम वस्ल के आये, आकर चले गये।
नसीब जिसका हो खिज़ां, उसको बहार कहां।

मिलते ही हमसे कहते हो, 'कहां हो आजकल?'
हम तो हमेशा हैं यहीं, रहते हो तुम कहां?

उसकी तलाश में भटके हर सू यहां वहां,
ढूंढा न अपने दिल में ढूंढा कहां कहां।

जिसकी तलाश में छोडा दुनिया औ' दीन सब,
अलहदा है वो सभी से उसकी मिसाल कहां।

Saturday, February 06, 2010

"१०८४वें की मां"


आज महाश्वेता देवी का उपन्यास "१०८४वें की मां" पढा। मन को कहीं गहरे तक छू गया। ये कहानी है सुजाता चैटर्जी की जो एक साधारण महिला है,एक बैंक में काम करती है। उसका जीवन उसके परिवार और कर्तव्यों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। उसका सबसे छोटा बेटा व्रती नक्सलवादियों के संग में पडकर मारा जाता है। उसकी लाश का नम्बर १०८४ है। और सुजाता बन जाती है १०८४वें की मां!
सुजाता अपने बेटे के जीवनकाल में उसके नक्सलवादियों से सम्बन्ध के बारे में बिल्कुल अनभिग्य रहती है। पूरा उपन्यास एक दिन पर ही आधारित है जो कि व्रती का जन्मदिवस भी है और म्रत्यु दिवस भी। कुल मिलाकर पूरा उपन्यास बहुत ही अच्छा लगा।
इस उपन्यास पर गोविन्द निलहानी ने "हजार चौरासी की मां" नाम से एक मूवी भी बनायी है। जब मौका लगे तो ये मूवी भी देखना है।

Tuesday, February 02, 2010

प्रीत के रंग

सुध-बुध अपनी खो बैठूं मैं
कोई ऎसा गीत सुनाओ।
अपना रंग डाल दो मुझ पर,
या फिर रंग में मेरे तुम रंग जाओ।

क्या हुआ जो मैं राधा नहीं हूं,
तुम तो मेरे कान्हा हो।
अपना मुझे बना लो प्रियतम,
या फिर मेरे तुम बन जाओ।

सुख दुख के सब रंग मिले तो
बनी ओढनी जीवन की।
अपने इस संगम का प्रियतम
क्या है भेद तुम्ही समझाओ

तुम हो गुम अपनी दुनिया में,
और मेरी हो दुनिया तुम।
तज कर एक दिन काम सभी तुम,
संग मेरे एक सांझ बिताओ।

रंगो की जब बात चली तो,
क्या गोरा और क्या काला।
रंग लहू का एक है सबके
चाहें किसी भी देश में जाओ।