Monday, June 13, 2005

मित्र

मित्र तुम कितने भले हो!
तम से भरे इस सघन वन में;
दीप के जैसे जले हो!
मित्र तुम कितने भले हो!

तुम वो नहीं जो साथ छोङो;
या मुश्किलों में मुंह को मोङो।
राह के हर मील पर तुम,
निर्देश से बनकर खङे हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

संशयों में मन घिरा जब;
तुम ही ने तो था उबारा।
पार्थ हूं जो मैं कभी,
तुम सारथि मेरे बने हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

नयन से ढलें मोती कभी तो,
हांथ सीपी हैं तुम्हारे।
हर एक क्रन्दन पर मेरे तुम
अश्रु बनकर भी झरे हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

भंवर में था मन घिरा जब;
तिनके का भी न था सहारा।
डगमागाती सी नाव की तब,
पतवार तुम ही तो बने हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

3 comments:

अनूप भार्गव said...

सुन्दर और सहज अनुभूति ....
लिखते रहिये , और पढ़नें की इच्छा रहेगी ।

अनूप भार्गव

Akki said...

Very Well Written, Sarika.
soft feelings, with soft words
I liked it.

प्रशान्त said...

कुछ लिखने की इच्छा को इतने सुन्दर शब्द मिले कि और कुछ लिखना अभी सम्भव नहीं.